दीपावली स्पेशल: पहले वाली दीपावली अब कहा... ना वह खुशियां, ना वह प्रेम - मधेपुरा खबर Madhepura Khabar

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13 नवंबर 2020

दीपावली स्पेशल: पहले वाली दीपावली अब कहा... ना वह खुशियां, ना वह प्रेम

मधेपुरा: बदलते दौर में बहुत कुछ बदला. दिवाली भी बदल गई है. ज्यादा नहीं 10-15 साल पहले की दिवाली और आज में बहुत अंतर आ गया है. अब न वो मिट्टी के घरौंदे हैं, न वो मिट्टी के खिलौने. आज के बच्चों को क्या पता, मोम जमा करने का जुनून क्या होता है. वीडियो गेम और स्मार्टफोन वाले ये बच्चे शायद ये भी नहीं जानते कि जिस दीये को जलाकर दिवाली मनाई जाती थी, वहीं दीये अगले दिन तराजू के पलड़े बन जाते थे. पीले-नीले-सफेद चीनी की मिठाई का स्वाद नहीं रंग भी मायने रखता था. 

और हां, धूप में पटाखे जलाने का भी अपना मजा था. सोच तो यही थी कि अगर पटाखे धूप में नहीं रखें तो फुस्स हो जाएंगे. हर पीढ़ी दिवाली को अपने ढंग से जीती है. बेफिक्री, मासूमियत, मस्ती और कभी-कभी दुस्साहस भी. फिर जब भी दिवाली आती है, वो दिवाली शिद्दत से याद आती है. सदियों से भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रही दिवाली में अनेक परंपराएं जुड़ती गईं. कुछ सिर्फ यादों में जिंदा हैं तो कुछ का स्वरूप बदल गया. 

न मिट्टी के खिलौने न घरौंदा

दिवाली आने से कई दिन पहले ही घरों में घरौंदे बनाने का काम शुरू हो जाता था. ये घरौंदे आज के जैसे लकड़ी या थर्मोकॉल के नहीं होते थे. ये घरौंदे सचमुच ईट और मिट्टी से बनते थे. घर के आंगन या छत पर इन्हें बनाया जाता था. फिर चूने या गेरुआ रंग से रंगा जाता था. इसमें सीढिय़ां भी होती थीं. अब जब आंगन और छत ही नहीं, तो फिर घरौंदा बने कहां? कुछ ऐसा ही हाल कुलिया-चुकिया का भी है. मिट्टी के खिलौने में चूल्हा से लेकर जांता तक सब होता था. जांता तब तक चलता रहता था, जब तक कि उसकी डंटी न टूट जाए. अब असली जाता और बच्चों का जांता दोनों के ही दर्शन दुर्लभ हो गए हैं. 

पपीते की पाइप में मोमबत्ती बनाना

बड़े लोग जिस जतन से मोमबत्ती जलाकर सजाते थे, बच्चे कहीं अधिक जतन से मोम बटोरते थे. मोमबत्ती कितनी देर जली, उससे अधिक ध्यान इस पर रहता था कि कितना मोम गिरा. रात में मोमबत्ती गिरी तो लूट ली और दिवाली की अगली सुबह तो दो-तीन घंटे घूम-घूमकर मोम बटोरने में ही चला जाता था. इसके बाद शुरू होती थी कारीगरी. पपीते के डंठल में धागा डालकर मिट्टी से एक सिरा बंद करना. 


फिर मिट्टी के बड़े दीये में मोम पिघलाकर उसे पपीते के डंठल में डालकर मोमबत्ती बनाना. इस मोमबत्ती की लौ में जो चमक होती थी, वह कभी दुकान वाली में मोमबत्ती में नहीं हुई. दिवाली की रात से अधिक अगली रात का इंतजार होता था ताकि अपनी मोमबत्ती जलाएं. कभी-कभी तो बेसब्री इतनी हो जाती थी कि दिन में ही एकाध बार जलाकर ट्रायल कर लिया जाता था. 

फुसफुसाए पटाखों की खोज

पटाखा छुड़ाने में मजा तो आता ही है, उससे कम मजा फुसफुसाए पटाखे खोजने में नहीं आता. जो पटाखे छूटते नहीं थे, वे बत्ती जलने के कारण इधर-उधर गुम हो जाते थे. फिर बच्चे उन्हें खोजते रहते थे. बिडिय़ा पटाखा इस मामले में ख्यात था. कई बार तो बुझते-बुझते अचानक फट पड़ता था. अचानक पटाखे चलाकर किसी बुजुर्ग को डराने का मजा भी खास होता था. दिवलिया पटाखा, टिकुलिया पटाखा और लतरिवा पटाखा भी अब आसानी से नहीं मिलते. 

दीये के तराजू से होता था कारोबार

दीये सिर्फ जलाने के ही काम नहीं आते थे. उनके कई और भी उपयोग थे. इसमें सबसे प्रसिद्ध था उनका तराजू बनाना. दो दीये के दो पलड़े बनते थे और रस्सी की जगह उन्हें तीन तरफ से सुतली से फंसाकर एक छड़ी के दोनों सिरों से बांधकर लटका दिया जाता था. बन गया तराजू. बड़े-बड़े व्यवसायियों के तराजू इतने व्यस्त नहीं रहते, जितना वह दीये का तराजू रहता था. 



पब्लिसिटी के लिए नहीं पब्लिक के लिए काम करना ही पत्रकारिता है....

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