दरभंगा 27/03/2018
किसी ने सही ही कहा है कि विश्व एक मंच है और यहां रहने वाले सभी लोग नाटक के पात्र. रंगमंच समाज का दर्पण हैं जिसे कलकार अभिनय कर प्रस्तुत करते हैं. इस दौर में द स्पॉटलाईट थियेटर दरभंगा द्वारा अष्टदल नामक विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर आठ दिवसीय रंग महोत्सव का आगाज मंगलवार को संगोष्ठी के साथ किया गया.
महोत्सव के पहले दिन संगोष्ठी में नाटक के 4 विद्वानों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया रखी. श्याम भास्कर ने कहा कि रंगमंच का एक स्याह पहलु भी है. वर्तमान में रंगकर्मी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. आर्थिक रूप से भी उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है. आलम यह है कि किसी भी नाटक को करने में वे खुद के ही रुपए खर्च कर अपने शौक को जिंदा रखे हैं. रंगमंच की स्थिति दयनीय है. महज कुछ लोग ही हैं जो इसे जिंदा रखें हैं.
प्रशासन की ओर से कोई सुविधाएं रंगकर्मियों के लिए नहीं है. यहां तक कि शहर में कोई ऑडोटोरियम तक नहीं है जहां कम कीमत में नाटक का मंचन किया जा सके. प्रेक्टिस के लिए भी कोई जगह नहीं है. प्रशासन को रंगकर्मियों को सुविधाएं मुहैया कराना चाहिए. जिससे स्थिति बेहतर हो सके.
प्रो. पुष्पम नारायण ने कहा कि रंगमंच का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम रहा है. शहर में एेसे कई रंगकर्मी हुए जिन्होंने देश में नाम रोशन किया. समय के साथ रंगमंच में गिरावट तो आई है. लोगों का रूझान रंगमंच की ओर कम हुआ है. हालांकि युवा पीढ़ी में कई एेसे युवा हैं जो कि ईमानदारी से रंगमंच करने की कोशिश कर रहे हैं. जिससे रंगमंच फिर से स्वर्णिम काल में पहुंच सके.
डॉक्टर अशोक मेहता ने कहा कि रंगमंच एक एेसा मंच है जिसमें सिर्फ एक विधा नहीं है. यह विभिन्न विधाओं का संगम है. सिनेमा के आने से रंगमंच को नुकसान तो हुआ है लेकिन रंगमंच शाश्वत है. वह कभी समाप्त नहीं हो सकता. सिनेमा में जहां किरदार एक रील में होते हैं जबकि नाटक में सजीव व्यक्ति संवाद करता है.
नाटक एक सशक्त माध्यम है इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं है. दीपक सिन्हा ने कहा कि रंगमंच की स्थिति में बीते दो तीन वर्षों में सुधार आया है. इससे पहले जहां स्थिति बेहतर थी लेकिन सिनेमा के बाद इसमें बदलाव आया था.
वर्तमान में युवा रंगमंच की ओर लौट रहे हैं लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वे अच्छे से तैयारी करें. जिस तरह से किसी भी डिग्री लेने के लिए पढ़ाई करनी पड़ती है ठीक उसी तरह रंगमंच के लिए भी जरूरी है कि युवा पहले समझे, तैयारी करें और आगे बढ़ें.
मौके पर डॉक्टर सत्येंद्र झा, मोहन मुरारी, सागर सिंह, चंदना सिंह, सुष्मिता झा, रविकांत ठाकुर नंदू, अखिलेश झा, अवधेश भारद्वाज, दिवाकर झा, उज्जवल राज, प्रशांत राणा, अंकुश प्रसाद, शिवम झा, शिवानी झा, ऋषभ झा, प्रत्युष कुमार भानु, शंकर आनंद झा, गुलशन प्रियदर्शी, अनीश सिन्हा, रमण राघव, दिवाकर साहू, श्लोक दत्त, सृष्टि मिश्रा, अभिषेक राठौर, अभिषेक आयुष, पल्लवी कुमारी, अंजली झा, दीपक मिश्र, श्याम नारायण झा, अविनाश झा, पंकज सहित कई लोग मौजूद थे. वक्ताओं का भाषण सुनने के लिए क्लिककरें.
किसी ने सही ही कहा है कि विश्व एक मंच है और यहां रहने वाले सभी लोग नाटक के पात्र. रंगमंच समाज का दर्पण हैं जिसे कलकार अभिनय कर प्रस्तुत करते हैं. इस दौर में द स्पॉटलाईट थियेटर दरभंगा द्वारा अष्टदल नामक विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर आठ दिवसीय रंग महोत्सव का आगाज मंगलवार को संगोष्ठी के साथ किया गया.
महोत्सव के पहले दिन संगोष्ठी में नाटक के 4 विद्वानों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया रखी. श्याम भास्कर ने कहा कि रंगमंच का एक स्याह पहलु भी है. वर्तमान में रंगकर्मी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. आर्थिक रूप से भी उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है. आलम यह है कि किसी भी नाटक को करने में वे खुद के ही रुपए खर्च कर अपने शौक को जिंदा रखे हैं. रंगमंच की स्थिति दयनीय है. महज कुछ लोग ही हैं जो इसे जिंदा रखें हैं.
प्रशासन की ओर से कोई सुविधाएं रंगकर्मियों के लिए नहीं है. यहां तक कि शहर में कोई ऑडोटोरियम तक नहीं है जहां कम कीमत में नाटक का मंचन किया जा सके. प्रेक्टिस के लिए भी कोई जगह नहीं है. प्रशासन को रंगकर्मियों को सुविधाएं मुहैया कराना चाहिए. जिससे स्थिति बेहतर हो सके.
प्रो. पुष्पम नारायण ने कहा कि रंगमंच का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम रहा है. शहर में एेसे कई रंगकर्मी हुए जिन्होंने देश में नाम रोशन किया. समय के साथ रंगमंच में गिरावट तो आई है. लोगों का रूझान रंगमंच की ओर कम हुआ है. हालांकि युवा पीढ़ी में कई एेसे युवा हैं जो कि ईमानदारी से रंगमंच करने की कोशिश कर रहे हैं. जिससे रंगमंच फिर से स्वर्णिम काल में पहुंच सके.
डॉक्टर अशोक मेहता ने कहा कि रंगमंच एक एेसा मंच है जिसमें सिर्फ एक विधा नहीं है. यह विभिन्न विधाओं का संगम है. सिनेमा के आने से रंगमंच को नुकसान तो हुआ है लेकिन रंगमंच शाश्वत है. वह कभी समाप्त नहीं हो सकता. सिनेमा में जहां किरदार एक रील में होते हैं जबकि नाटक में सजीव व्यक्ति संवाद करता है.
नाटक एक सशक्त माध्यम है इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं है. दीपक सिन्हा ने कहा कि रंगमंच की स्थिति में बीते दो तीन वर्षों में सुधार आया है. इससे पहले जहां स्थिति बेहतर थी लेकिन सिनेमा के बाद इसमें बदलाव आया था.
वर्तमान में युवा रंगमंच की ओर लौट रहे हैं लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वे अच्छे से तैयारी करें. जिस तरह से किसी भी डिग्री लेने के लिए पढ़ाई करनी पड़ती है ठीक उसी तरह रंगमंच के लिए भी जरूरी है कि युवा पहले समझे, तैयारी करें और आगे बढ़ें.
मौके पर डॉक्टर सत्येंद्र झा, मोहन मुरारी, सागर सिंह, चंदना सिंह, सुष्मिता झा, रविकांत ठाकुर नंदू, अखिलेश झा, अवधेश भारद्वाज, दिवाकर झा, उज्जवल राज, प्रशांत राणा, अंकुश प्रसाद, शिवम झा, शिवानी झा, ऋषभ झा, प्रत्युष कुमार भानु, शंकर आनंद झा, गुलशन प्रियदर्शी, अनीश सिन्हा, रमण राघव, दिवाकर साहू, श्लोक दत्त, सृष्टि मिश्रा, अभिषेक राठौर, अभिषेक आयुष, पल्लवी कुमारी, अंजली झा, दीपक मिश्र, श्याम नारायण झा, अविनाश झा, पंकज सहित कई लोग मौजूद थे. वक्ताओं का भाषण सुनने के लिए क्लिककरें.