मधेपुरा
एक पत्रकार कई ऐतिहासिक घटनाओं का भागीदार और चश्मदीद गवाह होता है. वह राज्यक्रांतियां होती हुई देखता है और राजनेताओं से पहले धंधई और फिर कई दफे निजी वजहों से दोस्ती, दुश्मनी के रिश्ते बनाता है. हमारा औसत हिन्दी पत्रकार प्राय: जब व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाता है तो अक्सर यह (निजी) अनुभव संसार ईमानदार अभिव्यक्ति में बाधा डालता है.
तब वह काफी हद तक एक आम दुनियावी व्यक्ति प्रमाणित होता है जिसके लेखन में राज्य क्रांतियां, दलगत उत्थान, पतन, भ्रष्टाचारिता और भांडाफोड़ निजी वजहों से आते- जाते रहते हैं और पूर्वग्रहों के उाास में ही दर्ज किए जाते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आज की पत्रकारिता, खासकर भाषाई पत्रकारिता पत्रकार को देश के छोटे से छोटे इलाके की प्राय: कोलाहल और हलचलों से भरी दुनिया को बड़े गौर से और करीब से देख पाने के लिए एक आदर्श रिंग-साइड सीट मुहैया करा रही है. और हिन्दी पत्रकारिता का असल काम इसी के बीच से जरूरी सूत्र तलाश कर उन्हें बड़े केन्द्र और राज्यस्तरीय घटनाओं के संदर्भो में पिरोते हुए अपने आम पाठक के लिए खबरों को एक साथ उपयोगी और बोधगम्य बनाना है.
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है. पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता. पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है. दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं. वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं.
उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है. यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है.
इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं. भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है. दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं. क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?
एक पत्रकार कई ऐतिहासिक घटनाओं का भागीदार और चश्मदीद गवाह होता है. वह राज्यक्रांतियां होती हुई देखता है और राजनेताओं से पहले धंधई और फिर कई दफे निजी वजहों से दोस्ती, दुश्मनी के रिश्ते बनाता है. हमारा औसत हिन्दी पत्रकार प्राय: जब व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाता है तो अक्सर यह (निजी) अनुभव संसार ईमानदार अभिव्यक्ति में बाधा डालता है.
तब वह काफी हद तक एक आम दुनियावी व्यक्ति प्रमाणित होता है जिसके लेखन में राज्य क्रांतियां, दलगत उत्थान, पतन, भ्रष्टाचारिता और भांडाफोड़ निजी वजहों से आते- जाते रहते हैं और पूर्वग्रहों के उाास में ही दर्ज किए जाते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आज की पत्रकारिता, खासकर भाषाई पत्रकारिता पत्रकार को देश के छोटे से छोटे इलाके की प्राय: कोलाहल और हलचलों से भरी दुनिया को बड़े गौर से और करीब से देख पाने के लिए एक आदर्श रिंग-साइड सीट मुहैया करा रही है. और हिन्दी पत्रकारिता का असल काम इसी के बीच से जरूरी सूत्र तलाश कर उन्हें बड़े केन्द्र और राज्यस्तरीय घटनाओं के संदर्भो में पिरोते हुए अपने आम पाठक के लिए खबरों को एक साथ उपयोगी और बोधगम्य बनाना है.
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है. पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता. पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है. दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं. वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं.
उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है. यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है.
इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं. भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है. दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं. क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?