मधेपुरा: मिथिला की समृद्ध व गौरवशाली संस्कृति तथा लोक परंपरा का अद्वितीय पर्व चौठचंद्र है. अपनी सांस्कृतिक विरासत को इस पर्व के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी मनाने की परंपरा चली आ रही है. आम बोलचाल की भाषा में इसे चौरचन पर्व के नाम से भी जाना जाता है. यह पर्व हर वर्ष भाद्र शुक्ल पक्ष चौठ तिथि को मनाया जाता है. मिथिला में यह पर्व वैदिक काल से मनाये जाने की परंपरा चली आ रही है. स्कंद पुराण में भी चौठचंद्र की पद्धति तथा कथा का वृहत वर्णन किया गया है. जनश्रुतियों के मुताबिक मिथिला नरेश हेमांगद ठाकुर ने सर्वप्रथम इस पर्व को मनाया था. उसके बाद से यह पर्व मिथिला के घर घर में मनाया जाने लगा.
इस पर्व के बारे में यह जनश्रुति चली आ रही है कि भगवान श्रीकृष्ण के स्यमंतक मणि की चोरी के कलंक से मुक्त होने की खुशी में यह पर्व मनाया जाने लगा. कहा जाता है कि स्यमंतक मणि चुराकर राजा प्रसेन भाग गया और चोरी का कलंक भगवान श्रीकृष्ण पर लग गया. एक सिंह ने राजा प्रसेन को मारकर मणि छीन ली. जामवंत ने सिंह का वध कर मणि अपने पास रख लिया. श्री कृष्ण ने जामवंत से युद्ध कर स्यमंतक मणि हासिल कर कलंक के दोष से मुक्त हुए थे. मिथिला में ऐसी मान्यता चली आ रही है कि इस पर्व को करने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है. रोग, शोक तथा क्लेश का शमन होता है. महिलाएं एक दिन का उपवास रखकर आंगन में अरिपन, रंगोली आदि बनाकर डाली, पाती सजाती हैं.
दही, फल, पान, सुपारी, पूजन सामग्री, नाना प्रकार के पकवान तथा मिठाईयों से डाली को सजाती हैं. गणपत्यादि पंचदेवता, गौरी, रोहिणी सहित भाद्र शुक्ल चौठ चंद्रमा की पूजा की जाती है. वैदिक मंत्रों से डालियों तथा दही के बर्तनों पर अर्घ्य देकर मड़र उत्सर्ग करती हैं.
(रिपोर्ट:- गरिमा उर्विशा)
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