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4 जनवरी 2018

खुद की खोज

मधेपुरा 04/01/2018
कभी-कभी रात में एक जुगनू की तलाश में चलती नदियों की धाराई सतह पर पैदल हीं निकल पड़ता हूँ. जहां से वो मुकाम सी अनंत छोर बहुत करीब नहीं दिखती पर नदी के उस पार जाकर अंतर्मन लौटने का इशारा भी नहीं करता.
               मेरे मन के विपरीत मेरी चाह को जीने की तमन्ना लिए मैं जैसे हीं जुगनू के करीब पहुँचता हूँ वो वहाँ से अदृष्य हो गई होती है.
                  शायद वो अंतिम छोड़ जो मेरी नजर में मंजिल बन बसी हुई थी वो मेरी आँखों के लिए एक छलावा मात्र था. मैं चकित हो उठता हूं और उस दिव्य रौशनी सी जुगनू की खोज में भागा-भागा सा फिरता हूं पर वो मेरी नजर से ओझल होती हीं जाती है. जिसे मैं अब अपनी भूल समझ घर लौटना चाहता हूँ.

                       जहाँ से लौट कर अपनी इस भूल को मिटाने के लिए चलायमान नदी की धारा में अपने पैरों के छोरे गए निशान को ढूंढता फिर रहा हूं पर शायद किसी ने मेरे जाते हीं स्थिर जल को झकझोंर कर मेरी पैरों के निशान को मिटा गया है.
               मैं उस शख्स की तलाश में हूं, जो अब तक मेरा पीछा कर रहा था.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)

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