मधेपुरा 25/01/2018
देश की सर्वोच्च शक्ति जो गणतंत्र कहलाता है, देश के नेतृत्वकर्ता चुनने हेतु जनता को मिला अधिकार है. जिस वजह से हमारा देश लोकतांत्रिक भी कहलाता आया है.
यहाँ के जनता यहाँ के शासक हैं. शायद आगे आप सब मेरी बातों से इत्तेफाक नहीं रखेंगे. बगैर हमारे वोट के कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है पर क्या आज हम अपनी वोट की सही कीमत को समझ पाने में सक्षम हो पाए हैं.
हमलोग तो आज खुद के जमीर की भी कीमत लगा सकते हैं अगर कीमत मिले तो. क्यूंकि हम आज भी गुलाम हैं उन मुट्ठी भर खादी वस्त्रधारी के. जिन्होंने अपनी गंदी राजनीति कर देश के शुद्ध हवा को विशाक्त करने के साथ-साथ राजनीति जैसे पवित्र शब्द को कलंकित किया है.
हमलोग तो आज जैसे दिन में मिलने वाली प्रसाद-रूपी बुनिया सेवई खाकर, रटा रटाया दो-चार देशभक्ति पंक्ति बोल अपने आजाद होने का दिखावा कर के हीं संतुष्ट हो लेते हैं. ठीक उसी तरह जिस तरह एक भूखा रोटी में कोमलता और रोटी देने वाले का हाथ नहीं देखता.
उसे तो बस भूख मिटानी होती है. चाहे उस रोटी में विष ही क्यूं नहीं घोला गया हो अर्थात हम कहीं न कहीं भटके हुए हैं.मुझे शर्म आती है ये बोलते हुए कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी पूर्ण रूपेण आजाद नहीं हो सके.
हम सब भ्रष्टाचार, अकाल और हिंसा से सिर्फ जूझने का दिखावा हीं नहीं कर रहे बल्कि एक नए जंजीर में जकड़ते हीं जा रहे हैं. जो हमें पूर्ण रूप से गणतांत्रिक-प्रणाली प्रदान करने का दुष्प्रचार कर रही है.
जुमलेबाजों ने हमारी नब्ज टटोलकर हमारे साथ वशीकरण का जो नंगा खेल खेला है आज जरूरत है उस बुरी शक्ति को पहचान कर उसे गणतंत्र की परिभाषा से अवगत कराने की. वंशवाद के जिन द्योतकों ने हमें बाँट कर घोटालाओं की एक लंबी फेहरिस्त तैयार की है आज जरूरत है हमें उनके खिलाफ आवाज उठाने की.
लेकिन हम तो बस पड़ोस के यहाँ भगत सिंह पैदा होता देखना चाहते हैं. हम जिन शहीदों के लिए नमन करते हैं दो मिनट का मौन रखते हैं उन शहीदों की आत्मा जानती है कि हमलोगों ने खुद का त्याग न करने की जो कसम खा रखी है एक दिन वही कसम इस देश को सुपुर्दे-खाक करेगी.
हमें अपने बेटे को शहीद नहीं करना है क्यूंकि हम आज भी गणतंत्र जैसे शब्दों से अनभिज्ञ हैं. हमलोग तो बस मोहरा बन कर रह गए हैं जो आज तक जातिवाद का शिकार होता आया है और तब तक होता रहेगा जब तक इस देश के लोग भारतीय नहीं हो पाएंगे क्योंकि यहाँ पद्मावती फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन होता देखा जा सकता है पर कभी खुद के हक के लिए "राष्ट्रव्यापी भारतीय एकता का प्रदर्शन" नहीं हो सकता क्योंकि आज भी हम सिर्फ तिरंगा के पर्व को प्रसाद खाने के लिए मनाते हैं.
हर सोलह अगस्त और सत्ताइस जनवरी को जब तिरंगा को सड़क पर धूल फांकते देखता हूं तो देह सिहर उठता है. इस दिखावे से कहीं अच्छा हो कि हम इसे तत्काल बंद ही कर दें.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)
देश की सर्वोच्च शक्ति जो गणतंत्र कहलाता है, देश के नेतृत्वकर्ता चुनने हेतु जनता को मिला अधिकार है. जिस वजह से हमारा देश लोकतांत्रिक भी कहलाता आया है.
यहाँ के जनता यहाँ के शासक हैं. शायद आगे आप सब मेरी बातों से इत्तेफाक नहीं रखेंगे. बगैर हमारे वोट के कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है पर क्या आज हम अपनी वोट की सही कीमत को समझ पाने में सक्षम हो पाए हैं.
हमलोग तो आज खुद के जमीर की भी कीमत लगा सकते हैं अगर कीमत मिले तो. क्यूंकि हम आज भी गुलाम हैं उन मुट्ठी भर खादी वस्त्रधारी के. जिन्होंने अपनी गंदी राजनीति कर देश के शुद्ध हवा को विशाक्त करने के साथ-साथ राजनीति जैसे पवित्र शब्द को कलंकित किया है.
हमलोग तो आज जैसे दिन में मिलने वाली प्रसाद-रूपी बुनिया सेवई खाकर, रटा रटाया दो-चार देशभक्ति पंक्ति बोल अपने आजाद होने का दिखावा कर के हीं संतुष्ट हो लेते हैं. ठीक उसी तरह जिस तरह एक भूखा रोटी में कोमलता और रोटी देने वाले का हाथ नहीं देखता.
उसे तो बस भूख मिटानी होती है. चाहे उस रोटी में विष ही क्यूं नहीं घोला गया हो अर्थात हम कहीं न कहीं भटके हुए हैं.मुझे शर्म आती है ये बोलते हुए कि हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी पूर्ण रूपेण आजाद नहीं हो सके.
हम सब भ्रष्टाचार, अकाल और हिंसा से सिर्फ जूझने का दिखावा हीं नहीं कर रहे बल्कि एक नए जंजीर में जकड़ते हीं जा रहे हैं. जो हमें पूर्ण रूप से गणतांत्रिक-प्रणाली प्रदान करने का दुष्प्रचार कर रही है.
जुमलेबाजों ने हमारी नब्ज टटोलकर हमारे साथ वशीकरण का जो नंगा खेल खेला है आज जरूरत है उस बुरी शक्ति को पहचान कर उसे गणतंत्र की परिभाषा से अवगत कराने की. वंशवाद के जिन द्योतकों ने हमें बाँट कर घोटालाओं की एक लंबी फेहरिस्त तैयार की है आज जरूरत है हमें उनके खिलाफ आवाज उठाने की.
लेकिन हम तो बस पड़ोस के यहाँ भगत सिंह पैदा होता देखना चाहते हैं. हम जिन शहीदों के लिए नमन करते हैं दो मिनट का मौन रखते हैं उन शहीदों की आत्मा जानती है कि हमलोगों ने खुद का त्याग न करने की जो कसम खा रखी है एक दिन वही कसम इस देश को सुपुर्दे-खाक करेगी.
हमें अपने बेटे को शहीद नहीं करना है क्यूंकि हम आज भी गणतंत्र जैसे शब्दों से अनभिज्ञ हैं. हमलोग तो बस मोहरा बन कर रह गए हैं जो आज तक जातिवाद का शिकार होता आया है और तब तक होता रहेगा जब तक इस देश के लोग भारतीय नहीं हो पाएंगे क्योंकि यहाँ पद्मावती फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन होता देखा जा सकता है पर कभी खुद के हक के लिए "राष्ट्रव्यापी भारतीय एकता का प्रदर्शन" नहीं हो सकता क्योंकि आज भी हम सिर्फ तिरंगा के पर्व को प्रसाद खाने के लिए मनाते हैं.
हर सोलह अगस्त और सत्ताइस जनवरी को जब तिरंगा को सड़क पर धूल फांकते देखता हूं तो देह सिहर उठता है. इस दिखावे से कहीं अच्छा हो कि हम इसे तत्काल बंद ही कर दें.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)