मधेपुरा 10/02/2018
छात्र-राजनीति कोइ खेल नहीं है जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है. छात्र-नेता बनने के लिए आपको खुद के आवाज को मारकर एक आवाज बनना परता है आम, गरीब, शोसित, लाचार छात्रों की.
जिस आवाज में अधिकार के लिए लड़ने की चीख बनती हुई सुनाई देती हो. वो चीख जिसे दबाने के लिए ना जाने कितनी गिरफ्तारी,कितने लाठी-डंडे और ना जाने कितनी ही ठोकरें मिलती है.
पर हम निडर हो अपने पथ पर चलते रहने का कसम खाकर चुनते हैं इस रास्ते को जिसमें खुद के मंजिल का कोइ अता-पता नहीं होता. मुझे याद है जब मैं छात्र संगठन से जुड़ा था तो मेरे अपनों ने आज की गंदी राजनीत का हवाला देते हुए मना किया था मुझे छात्र संगठन ज्वाइन करने से.
पर मैंने भगत सिंह को पढा था,सो लाजिम था मेरा अपने निर्णय पर डटे रहना. मैं सारे पहलुओं पर मंथन करके हीं इस निर्णय तक पहुँचा था. वाजिब था सर पर कफन बांध कर मुकाबले के लिए तैयार हो मैदान में आना.
मुझे कुबूल थी अपनी कुर्बानी ऐसे कार्यों में जहां कोइ योद्धा आज राजनीति शब्द को इज्जत दिलाने का संघर्ष कर रहा हो. हां मैं उस संघर्ष का गवाह बनूंगा.
छात्र-राजनीति कोइ खेल नहीं है जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है. छात्र-नेता बनने के लिए आपको खुद के आवाज को मारकर एक आवाज बनना परता है आम, गरीब, शोसित, लाचार छात्रों की.
जिस आवाज में अधिकार के लिए लड़ने की चीख बनती हुई सुनाई देती हो. वो चीख जिसे दबाने के लिए ना जाने कितनी गिरफ्तारी,कितने लाठी-डंडे और ना जाने कितनी ही ठोकरें मिलती है.
पर हम निडर हो अपने पथ पर चलते रहने का कसम खाकर चुनते हैं इस रास्ते को जिसमें खुद के मंजिल का कोइ अता-पता नहीं होता. मुझे याद है जब मैं छात्र संगठन से जुड़ा था तो मेरे अपनों ने आज की गंदी राजनीत का हवाला देते हुए मना किया था मुझे छात्र संगठन ज्वाइन करने से.
पर मैंने भगत सिंह को पढा था,सो लाजिम था मेरा अपने निर्णय पर डटे रहना. मैं सारे पहलुओं पर मंथन करके हीं इस निर्णय तक पहुँचा था. वाजिब था सर पर कफन बांध कर मुकाबले के लिए तैयार हो मैदान में आना.
मुझे कुबूल थी अपनी कुर्बानी ऐसे कार्यों में जहां कोइ योद्धा आज राजनीति शब्द को इज्जत दिलाने का संघर्ष कर रहा हो. हां मैं उस संघर्ष का गवाह बनूंगा.
(गौरव प्रसाद)