दिन के भीड़ में नखरे दिखाती
अपने लफ्जों से विश्वास दिला
फिर बातें झूठा बताती
कदम आगे शिद्दत से बढ़ा
फिर यूं पीछे खींच लेती
समुंद्र से प्यार उछाल
फिर खुद ही समेट लेती
इश्क काजी उस कातिल का
रूह आज भी कांपती है
इस काजी इश्क की दरिया
खुद का ही दम घूँटता है
क्या क्या कहती ये हवाएं
चुपके से मेरे कानों में
एकतरफा प्रेम भरे भाव से
फिर भी पौने मैं तेरा होता..
(कल्पना- नवीन कुमार)