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28 अगस्त 2016

जाने कहाँ गए वो दिन.............

आओ चलें बचपन की ओर....गुड्डे-गुड़िया, खेल-खिलौने, मस्ती-आजादी और बेमतलब की अट्खेलें. सचमुच बहुत याद आते हैं वो दिन जब छोटी-छोटी बेमतलब की बातों में भी हम ढेर सारी खुशियों के मेले देखा करते थे. मिटटी के बर्तन-कठपुतलियों में खूब मन लगता था. नन्हें टिन के पिस्तौल खरीद कर खुद को बड़े सिपाही बना बैठते थे, तो गुड्डे-गुड़ियों संग अपना संसार बसाने लग जाते. सचमुच आज भी जब पुराने दिन याद आते हैं तो मन फिर से उन्हीं दिनों में हिचकोलें लेने लगता है और तो और मजा तब और भी बढ़ जाता है जब कोई हमउम्र या बचपन का साथी उन यादों को ताजा करने लग जाता है. फिर उम्र भले पचपन की होती है लेकिन मन तो बचपन में हीं खोया रहता है. पर बचपन और आज में बड़ा फर्क देखने को मिलता है. आज के बचपन और कुछ वर्ष पहले के बचपन में बदलाव का एक लम्बा फासला है. यूँ तो आज भी वही धरती वही आसमान और वैसे ही दो हाथ - दो पैर वाले इंसान हैं पर फिर भी न जाने क्यों काफी कुछ बदलता जा रहा है. इस बदलते हुए परिवेश में बहुत कुछ पुराना बदलने के बदले विलुप्त हीं होता जा रहा है. पहले तो माहौल ही कुछ और होता था. छोटी – बड़ी खुशियों के पल तो जैसे रोजाना के किस्से हुआ करते थे पर आज तो अलग से वक़्त निकालने पर भी वैसी अनुभूति नहीं होती है. वाकई जमाना जो बदल गया है. भई ! हर पर्व – त्यौहार में रिश्तेदारों की हुजूम लग जाती थी. खासकर लोगों में मेला देखने की एक अलग हीं उत्सुकता होती थी. मेले के चाट-पकौड़े, खिलौने, कुल्फी, रंग - बिरंगी चूड़ियां, नाचता बन्दर, भविष्य दिखने वाला पोपट, मदारी वाला, तरह-तरह के झूले, आश्चर्यजनक करतब दिखानेवालों से उत्सव का माहौल और भी खुशमिजाज हो जाता. लोगों को कई दिन लग जाते मेले की याद से छुटकारा पाने में, पर आज तो न मेला लगता है न कोई याद हीं बनती है. अब तो बचपन भी आधुनिक होता जा रहा है. जहां बच्चे मिट्टी में सने होते थे अब इन्टरनेट की दुनिया में खोये होते है और नन्हे बच्चों के हाथ में इन्टरनेट की देनें होती है.
                              वो समय ही बहुत अलग था जब गावों में लोग मेले का मज़ा ऐसे लेते थे जैसे कोई बड़ा त्यौहार मन रहे हों. छोटे-छोटे बच्चों से लेकर दादा - दादी तक इस मेले का लुत्फ़ उठाने आते थे. पूरा गाँव एक परिवार की तरह उस मेला का हिस्सा बनने जाता था.  क्या आपको याद है कि आप आखिरी बार कब ऐसे किसी मेले का हिस्सा बने थे. समय बदला ,समय के साथ इंसान और इंसान के साथ उसके तौर-तरीके. आज मनोरंजन के सदन ही बदल गए हैं. एक समय था जब ऐसे मेले गावों की रौनक होते थे. लोग इसकी तैयारी कई दिनों से किया करते थे और दिन ढलते हीं सब एक जुट होकर मेले में मौज - मस्ती करने जाते थे, दादा - दादी में भी वो बचपना आ जाता था. पर आज हमें तो एक - दुसरे से बात करने का भी समय नहीं है...........?
(स्पेशल रिपोर्ट: मधेपुरा:-एस साना/ गरिमा उर्विशा) 

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