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10 जनवरी 2018

मैं धुंध हूँ

मधेपुरा 10/01/2018 
मैं धुंध हूँ.... हां वही धुंध जिसे तुम सब हटा देना चाहते हो,चीर देना चाहते हो अपने रौशन 'चाल' से. ठीक उसी धुंध के कुछ आगे जाने पर एक पत्थर तुम्हारे रास्ते में लेटा हुआ मिलेगा,जिसे तुम ठोकर मार कर एक किनारे धकेल दोगे.
            और अब उसकी जान बचाने का पूरा श्रेय अपने माथे लिए हरेक मुसाफिर को बताते फिरोगे कि तुमने आज रास्ता साफ किया है. खूब तालियाँ और वाहवाही मिलेंगी तुम्हें ऐसी बातों पर लेकिन मुझे दुख है कि तुम उस धुंध को सुन नहीं पाए जो तुम्हें रोक कर कुछ कहना चाह रही थी उस बेजुबां पत्थर के विषय में.
            जो आज तुम्हारी ठोकर के बाद एक किनारे पड़ा है,किसी ने ठोकर देकर ही उसे तुम्हारे सामने ला दिया था. उसकी धड़कन चल रही थी तभी जब तुम उसे ठोकर मारने वाले थे. वो कराह रहा था ,जिसे सुन कर तुम उसके इस हाल का वजह जान सकते थे.
         क्यूंकि वो जन्मजात पत्थरदिल पैदा नहीं हुआ था. उसे तो पत्थर बना दिया गया था उस दिन जब किसी कुल्हाड़ी की चोट ने उसे जुदा किया था उसके परिवार से. वो अपना दिल संभाल न सका था. अपनों से बिछड़ने का दर्द तुम्हें पता भी हो तो कैसे , तुम सब तो आनंदभोगी बन बैठे हो ना.

                क्यूंकि तुम्हें समंदर के जगह रेगिस्तान अच्छा लगेगा जहाँ रेगिस्तान है वहाँ श्मशान अच्छा लगेगा पर तुम्हें चार पाए से बंधा मकान क्या खाक अच्छा लगेगा. वो तुम्हारी आँखों में खटकेगा ठीक उसी तरह जैसे तुम्हारी सबसे बड़ी खुशी किसी गैर की बाँहों में झूल रही हो और तुम वापस उस खुशी को किसी तरह खुद का कर लेना चाहते हो.
                 काश वो बेजुबां पत्थर एक बार फिर खुद का हाल बताने किसी राहगीर के रास्ते आ पाता और मैं एक मुसाफिर बन उसे गले लगा उसका दर्द बांटने की कोशिश कर पाता. पर वो बेजुबां अब इन छोटी ठोकरों से उब चुका है और ऐसे ठोकर के इंतजार में है जो उसके अस्तित्व तक को मिट्टी में मिला देगा.
             और वो उसकी मुक्ति की दिन होगी. जिस दिन वो तुम सब पर हँस रहा होगा पर तुम वो सुन नहीं पाओगे क्यूंकि तुम जो जज्बाती होने का ढोंग करते हो ना वो असल में 'जज्बात' नहीं है. उसे 'फरेब' कहते हैं मेरे दोस्त. 
(कल्पना:- गौरव गुप्ता) 

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