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सत्यम कुमार झा |
शहर के चौराहे पर लाल निशान कई बार लिखा गया और समाज की किताब इसे खतरे की घँटी के नाम से जाना गया. एक पटरी जो दूर बहुत दूर तक जाती थी जहां आजादी लिखनी चाहिए थी.
वहां स्टेशन लिख दिया गया. फिर भी पटरियों ने कभी रेलगाड़ियों का साथ नहीं छोड़ा हां इंसान रंग छोड़ने के आदी जरूर हो गए. अब सांझ ढलते ही कोई पहरेदार नहीं पीटता डंडा न ही सिटी बजाता है. उसे खूब मालूम है चोर अब हर घर के अंदर ही है.
दूर से आती मद्धिम रौशनी लिखती है किलकारियां उन बच्चों के लिए जो लैंपपोस्ट के नीचे खेलते है और थकते हुए फुटपाथ पर सो जाया करते है. शहर अब हादसों का जुमला बन गया है, जो आये दिन खबर में इश्तिहार सा ऊपरी पृष्ठ पर रोज पाया जाता है. मैंने इस बदलते विन्यास पर क्षोभ प्रकट किया और चख कर दारू पी और सो गया.
ताकि सुबह सूरज की अंगड़ाई में शहर पर झाड़ू से साफ होते गंदगी के बाद का शहर मेरे हिस्से आए. जीवन का हिस्सा कुछ रह गया उन प्लेटफार्म साजहां कोई एक्सप्रेस रेलगाड़ी गुजरते हुए सिटी नहीं बजाती मैं एक शहर हूँ रात लिखता हूँ और बेहद डर जाता हूँ मुझे पता है आज भी कुछ हादसे इसी क्षण यही कहीं मेरे देह पर उकेर दिए जाएंगे.
एक सेना है जो नदी की भांति हर सुबह अपना रास्ता खून भरी जूतों के साथ तय करती है. और कोई मोची उसे चमका कर उन्हें शरीफ साबित करेगा. मैं शहर हूँ- रात में भी रौशनी की तलाश में लैंपपोस्ट तक आकर रुक जाता हूँ. ताकि शहर में रहने लायक जगह बची रह जाए.
(कल्पना:- सत्यम कुमार झा)