मधेपुरा 05/02/2018
अब मुझे वो ख्वाब नहीं आते, जिसमें मैं दीवाल बन दो भागों में बांटा करता था पूरी रात एक जमीन को.
अब मुझे वो कराह नहीं सुनाई देती जिस क्रंदन से मैं सिहड़ उठता था एक हद तक.
अब मुझे वो दृश्य नहीं दिखते जिसमे मैं खुद की परछाई के सहारे हँसने की कोशिश किया करता था. अब वो रातें नहीं आती ना ही वो नींद ही है बची मेरे पास.
मैं तो बस भीगा करता था उस बारिश में,जो शायद किसी के खून में सनकर आती थी मेरे छत तक. छत के नीचे आती उस बारिश के धार को अपने सर तक लाने के लिए पता नहीं क्या-क्या करता था मैं.
कुछ था जिसे मैं बिल्कुल अलग कर देना चाहता था खुद से. किसी ने कहा वो भूख थी मेरी किसी ने कहा प्यास थी, पर मैं कभी तृप्त नहीं हो सका इन दोनों खण्डों के संपर्क-पान कर.
अब मुझे वो ख्वाब नहीं आते, जिसमें मैं दीवाल बन दो भागों में बांटा करता था पूरी रात एक जमीन को.
अब मुझे वो कराह नहीं सुनाई देती जिस क्रंदन से मैं सिहड़ उठता था एक हद तक.
अब मुझे वो दृश्य नहीं दिखते जिसमे मैं खुद की परछाई के सहारे हँसने की कोशिश किया करता था. अब वो रातें नहीं आती ना ही वो नींद ही है बची मेरे पास.
मैं तो बस भीगा करता था उस बारिश में,जो शायद किसी के खून में सनकर आती थी मेरे छत तक. छत के नीचे आती उस बारिश के धार को अपने सर तक लाने के लिए पता नहीं क्या-क्या करता था मैं.
कुछ था जिसे मैं बिल्कुल अलग कर देना चाहता था खुद से. किसी ने कहा वो भूख थी मेरी किसी ने कहा प्यास थी, पर मैं कभी तृप्त नहीं हो सका इन दोनों खण्डों के संपर्क-पान कर.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)