मधेपुरा 06/02/2018
उस रेत को बंद कर रखा है मैंने एक डब्बे में, जिस पर कभी अपना नाम चढ़ाया था, किसी गैर के हाथों ने तुम्हारे साथ.
उस रेत ने अपनी असहमति जताई थी उसी पल, लेकिन तुम तो जी रहे थे एक ऐसे स्वप्न को जिसका अंत किसी सवेरे में न होकर अमावस्या-रात्रि के कूप-अंधेरे में था.
हां, पता था मुझे कि तुम पूर्णिमा तक इंतजार भी नहीं कर पाते लेकिन उस धड़कन की आवाज सुनी थी तुमने भी,जो इशारा कर रही थी अगले दिन के उजाले की ओर.
शायद उस सुबह का इंतजार भर पलट सकता था एक समंदर को, जो आज उल्टी दिशा में बहकर भी सीधी, ईमानदार और चरित्रवान बनी फिर रही है जमाने में.
वो मंगलसूत्र जो मेरे हक का था, वो टूट जाया करती थी बेवजह हीं दिन-रात किसी कमजोर कड़ी से, हाँ सीधे कहूँ तो वो भी थक चुकी थी किसी और के हक की गवाही बनकर.
मैंने बेच दिया है उस मंगलसूत्र को उसकी आजादी के वास्ते क्यूंकि मैं अकेला गवाह रहना चाहता हूँ अपने प्रेम का.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)
उस रेत को बंद कर रखा है मैंने एक डब्बे में, जिस पर कभी अपना नाम चढ़ाया था, किसी गैर के हाथों ने तुम्हारे साथ.
उस रेत ने अपनी असहमति जताई थी उसी पल, लेकिन तुम तो जी रहे थे एक ऐसे स्वप्न को जिसका अंत किसी सवेरे में न होकर अमावस्या-रात्रि के कूप-अंधेरे में था.
हां, पता था मुझे कि तुम पूर्णिमा तक इंतजार भी नहीं कर पाते लेकिन उस धड़कन की आवाज सुनी थी तुमने भी,जो इशारा कर रही थी अगले दिन के उजाले की ओर.
शायद उस सुबह का इंतजार भर पलट सकता था एक समंदर को, जो आज उल्टी दिशा में बहकर भी सीधी, ईमानदार और चरित्रवान बनी फिर रही है जमाने में.
वो मंगलसूत्र जो मेरे हक का था, वो टूट जाया करती थी बेवजह हीं दिन-रात किसी कमजोर कड़ी से, हाँ सीधे कहूँ तो वो भी थक चुकी थी किसी और के हक की गवाही बनकर.
मैंने बेच दिया है उस मंगलसूत्र को उसकी आजादी के वास्ते क्यूंकि मैं अकेला गवाह रहना चाहता हूँ अपने प्रेम का.
(कल्पना:- गौरव गुप्ता)