भीड़ है बहुत मगर स्वार्थियो का मेला है,
यह जानते है सब की बस कुछ समय की मेला है,
फिर भी मन का मोह एक बहुत बड़ा झमेला है,
आदमी के भीड़ में आदमी अकेला है.
यहाँ कहते है सब की मै हूँ एक मानव बड़ा,
लेकिन मानव का ढोंग लिए लग रहें है सब खड़ा,
क्यूकि मानवता को सबने सामने धकेला
आदमी के भीड़ में आदमी अकेला है .
कौन,किनसे पूछता हैं, क्या हैं उनकी मज़बूरी?
आदमी के भीड़ में आदमी अकेला है .
कौन,किनसे पूछता हैं, क्या हैं उनकी मज़बूरी?
दुःख सुख को झेलता हीं कट जायेगी ये दूरी,
लेकिन मन की एक बात रह जायेगी अधुरी,
आखिर समाज में लगता क्यों मेला है?
आदमी के भीड़ में आदमी अकेला है.
लेखक
आशीष कुमार सत्यार्थी
मोबाईल- 07631991405